शहर, तुम कब रुकोगी ?

शहर, बहुत तेज़ चलती है
तुम्हारे यहाँ सभी चीज़ें।
मैं थक सा गया हूँ ,
इस दौड़ में दौड़ते दौड़ते।
गाड़ियों का शोर गुल
लाल, पिली, नीली, हरी,
टीम-टीमाती बत्तियाँ
और एक दूसरे को पीछे छोड़
आगे निकलने की ज़िद।
रोज़ वही घर से दफ्तर,
दफ्तर से घर
परिवार संग दो पल
के लिए भी ज़द्दो-जहत
और सवेरा होते ही
वही लक्ष्यहीन दौड़ पे निकल जाना।
हांफने सा लगा हूँ मैं
एक पल को ठहरो शहर।
एक चैन की आह भरने दो,
स्वांस को इक्ठ्ठा कर
उसे महसूस करने दो।
नकली मुस्कान लिए खिलखिलाते चेहरे
मधु-प्याले से अपने दुःख को छिपाते
कहते हैं “सब ठीक है”।
कब तक ये मुखौटे पहनू मैं ?
मैं निस्तब्ध हूँ
तुम्हारे इस दिशाहीन रफ़्तार को देख कर।
इतना तीव्र भागना जरुरी है क्या ?
शहर, तुम्हारी आधुनिकता की आदत
मुझे कपकपा सी देती है,
जब सधारणपन का सोचता हूँ।
लगता है नहीं कर पाऊंगा
किसी के ख़त का इंतज़ार।
धैर्य ? धैर्य क्या होता है ?
मुझे पता ही नहीं अब।
सबकुछ पलक झपकते ही होता है यहाँ।
शहर, तुम्हारे यहाँ गिरने पे
मरहम नहीं लगाते,
वरन् हस्ते हुए कहते हैं
“यहाँ यही होता है, आगे बढ़ो”।
इस भागती हुई भीड़ में
खुद को अकेला सा पा रहा हूँ।
लोग तो अनगिनत हैं यहाँ
लेकिन कोई एक को भी
अपना नहीं गीन पा रहा।
शहर,थोड़ा धीरे चलो
मैं थक सा गया हूँ ,
कदम लड़खड़ा से रहे हैं।
तुम्हारे इस मायावी संसार में
आ तो गया हूँ मैं,
लेकिन मेरी रूह उस साधारण से
घर में अटकी पड़ी है।
शहर, तुम्हारी ये आधुनिकता में
मुझे प्राचीनता चाहिए।
इस कृत्रिम लाल, पीली बत्तियों
की टिमटिमाहट नहीं, वरन् वो
सूर्योद की लालिमा,
नीले रंग में ढलती हुई शाम,
नभ में उड़ते आज़ाद पंक्षी,
रात के कालेपन में
पिली रोशनी से जगमगता वो दिया।
आकाश-गंगा के असंख्य
टिमटिमाते रंग-बिरंगे तारे,
मंगल का लाल रंग,
चाँद की स्वेत शीतलता।
रातरानी की भीनी-भीनी महक से
बंधती हुई समां,
और शीतल छाया की चादरों
में लिपटा हुआ मैं।
एक ठंडी हवा का
मुझे छूते हुए गुज़र जाना,
और मेरे सभी जख़्म पर
कोमल पंखों से मरहम लगा जाना।
रात की गहरी सन्नाटों में
मेरे स्वांसो का मुझसे ये कहना,
की ठहरो, एक पल को रुको,
अनुभूत करो ये ख़ामोशी,
जो है, वो अभी, यही है।
शहर, तुम्हारे इस असीमित आसमान में
मुझे लक्ष्यहीन बादल
की तरह नहीं भागना,
वरन् उस चाँद की गति से
धीमे-धीमे चलना है।
शहर, तुम कब रुकोगी ?