सफ़रनामा

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इस नए शहर का
अकेलापन काट उठता है।
ना लोग अपने लगते,
ना ये शहर अपना लगता
ना कोई त्यौहार मनाता,
ना तो कोई शोक ही मनाता।
यहाँ की बारिश भी चुभती है शूल सी।
पुराने शहर का वो सफर
और वो नए रास्ते,
जहाँ कहने को कोई भी अपना न था,
लेकिन फिर भी सब अपना सा था।
खून के रिश्ते नहीं थे,
लेकिन लोग अपने थे।
वो रास्ते अपने से थे
वो शाम अपनी सी थी
वो बारिश अपनी सी थी
वो चाँद अपना सा था
वो सर्द धुप अपनी सी थी
वो शोर अपना था
वो एकांत अपना था।
खुद की एक पहचान थी,
वो शहर अपना सा था।