Reluctant Writer
Reluctant Writer
Writes about fictitious reality.

प्रीत की विरह

प्रीत की विरह
मन की ये बेचैनियाँ, शब्दों का ये मौन,
आँखों की वीरानियाँ, तुम बिन समझे कौन।
[Art by author]

अपने तोड़ रहे थे तुम्हें
और तुम्हें टूटता देख,
मैं टूट रहा हूँ।

किस पल छिन ले जायेंगे
तुम्हें ये मुझसे
ये सोच,मैं तुमसे
और बंधता जा रहा हूँ।

ये पल उस बीते हुए कल की तरह है,
जब तुम्हें पहली बार
कस के गले लगाया था।
तब भी जी नहीं भरा था,
और आज भी
मन नहीं छोड़ने का तुम्हें।

तुमसे पृथक हो जाने का विचार,
उस समुंद्री तूफ़ान के
भयवक लहरों जैसा है।
मुझे अपने में समेटता है,
और एक वीरान किनारे पे
अकेला फ़ेंक देता है।

प्रीत की यह विरह
बड़ी अजीब है,
एक ही वक़्त पे
आनंद और पीड़ा,
दोनों महसूस करा रही है।

किसी ने पूछा था मुझसे,
प्रीत का अर्थ क्या है?

लोगों की माने तो,
प्रीत तपस्या है,
प्रीत धैर्य है,
प्रीत आँसू है,
प्रीत ख़ुशी है।

लेकिन मेरे लिए तो
प्रीत का अर्थ बस तुम हो।