Reluctant Writer
Reluctant Writer
Writes about fictitious reality.

पहचान तेरी बननी है बाकी

पहचान तेरी बननी है बाकी
[Image Source: Google ]

जिन इच्छाओं को तू
आज तक दबाकर रखा है,
कल वो खुद-व-खुद
पूरी हो जाएगी।

बस कुछ और देर
सब्र कर ले
ये इच्छाओं की क्षुधा
भी मीट जाएगी।

जो खो दिया तुने इस पल सब्र
तो कभी पूरी ना होगी ये इच्छा
और रह जायगी बस ये चाह

काश! मैं उस वक़्त रखता सब्र
तो ये अश्रु न गिरते
ना होता ये पछतावा।

बस होती मन में हर्षो उल्लास
की आखिर मैंने भी कर दिखाया
और न रहने दिया ये शब्द “काश”।

बहुत कठिन होता है
इन भावों पर संयम कर पाना
लेकिन जो सयम न रखो इनपर
और हो गए ये हावी जो तुमपर

तो भूल जाना उन सपनों को तुम
जो तुमने कभी देखे थे
और रह जाना बस शब्द
“काश” के साथ
जो तुमने नहीं सोचे थे।

लोग तो तुमपर हसेंगे ही
लेकिन क्या तुम रह पाओगे
ताने सुनकर ?

फिर याद आएगी अतीत
और वो प्रण,
जो तुने ही लिया था
कभी किसी छण।

न आएगा ये समय कभी
फिर तेरे लिए
न ज़िंदगी लाएगी ये पल कभी

तो मत जी
उस पछतावे के साथ,
जिनके साथ तू जीते आया है
अब तक।

तोड़ दे अपनी सारी हदें
उस पल को पाने को
ना रहने दे कोई पछतावा
और बढ़ जा आगे
छोड़ इन सभी को।

दिखा दे सबको
की तेरे बातें हैं नहीं
सिर्फ अतिश्योक्ति,
क्यूंकि तू जानता है
कैसे करनी है तुझे उस
लक्ष्य के प्रति भक्ति।

त्याग दे अभी ये मोह माया
फिर हो चाहे वो कोई भी।

खींच ले एक सिमित रेखा
जिसमें तू रह अभी
ताकि उड़ सके तू उस
असीमित आकाश में,
जहाँ पहचान तेरी बननी है बाकी।