मेरा कर्म क्यों हुआ निष्फल ?

हारा हुआ मन,
उदास आँखें,
ह्रदय के खिड़की से झाँकती
छिपी हुई, एक टूटी आस।
पग-पग डगमगाता आत्मविश्वास,
संदेह से भरा
हर एक प्रयास।
भीतर सुलगती
एक आत्मदया की आग
और उसकी लौ में जला देता,
मैं अपनी हर एक आस।
भ्रमासक्ति में जीने वाला
दिखता मुझे सफल,
फ़तह की मृगतृष्णा में,
मैं दौड़ता आजकल।
स्वयं के हर छोटे प्रयत्नों को
करता मैं कंकड़ प्रतीत,
अंतरद्वंद से पहुँचता
अंतर्मन को छति।
अपनी ही छमता पे
मैं करता सवाल,
पूछता -
मेरा श्रम कहाँ और कब हो गया विफल ?
मेरा कर्म क्यों हुआ निष्फल ?