मैं स्थिर हूँ और तुम गतिमान
शाहीर ने अपने पुराने दफ़्तर को अल्पविराम दे दिया है। कुछ समय बीत चुके हैं उसे नौकरी को अलविदा कहे हुए। एक माह आराम करने के पश्चात् शाहीर अब फिर से नए पेशे की तलाश करते हुए अपने घर की ओर लौट रहा था। प्लैटफ़ॉर्म पे बैठ अपनी गाड़ी के आने का इंतजार कर रहा था। कई गाड़ियां आयीं और चली गयी। शाहीर बैठा रहा।
कुछ कदम दूर उसी प्लैटफ़ॉर्म पर अब्दुल कि चाय की दुकान थी। अब्दुल ने शाहीर से पूछा - “आज घर नहीं जाना क्या ? आख़री ट्रेन बची है।”
कुछ समय मौन रहने के बाद शाहीर ने कहा - “मैं स्थिर हूँ, और तुम गतिमान।”
अब्दुल को ये बात कुछ समझ नहीं आयी। काफ़ी रात हो चुकी थी वो अपनी दुकान बंद करने वाला था लेकिन उसके पास थोड़ी सी चाय बच गयी थी। उसने बची हुई चाय को गर्म किया और दो कप में निकाला। एक चाय शाहीर को दी और दूसरी खुद लेकर बगल में बैठ गया और शाहीर से उसके वाक्य का अर्थ पूछा।
तब शाहीर ने अब्दुल से कहा -
ये ज़िंदगी ऊन के गोलों की तरह ही है। रंगीन, लेकिन एक बार उलझ जाए तो जितना सुलझाने की कोशिश करोगे उतना ही उलझते जाते हैं। कभी कभी समझ नहीं आता की क्या करें ? लगता है सब कुछ छोड़ दें और हाथ पे हाथ रखकर बैठ जाए और तमाशा को बस देखते रहे। लेकिन बिना कर्म किये रह भी नहीं सकते।
बीते हुए दिन काफ़ी ज्यादा याद आते हैं मुझे। क्या ये सब खालीपन के कारण हो रहा है ? कारण जान ने जाओ तो मन और व्याकुल हो उठता है। जीवन में एक समय ऐसा आता है जहाँ हम बस मूक यात्री की तरह बैठे ही रह जाते हैं और सब की गाड़ी चलती चली जाती है।
आती जाती गाड़ियों को देखकर मुझे ये अनुभूति हुई है की समय का ये सफर मेरे पहले भी जारी था और मेरे बाद भी रहेगा, लेकिन
आज मैं समय से ये कहना चाहूँगा - “मैं स्थिर हूँ और तुम गतिमान।”
कुछ देर तक दोनों स्थिर एवं मौन बैठे रहे। थोड़े पल बाद आख़री ट्रैन ने भी अपने आने की दस्तक दे दी।
P.S - इस कहानी में “तुम” का तात्यपर्य समय से है।
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