Reluctant Writer
Reluctant Writer
Writes about fictitious reality.

माँ तुम यहीं हो

माँ तुम यहीं हो
Art by Author

पुराने किताब के
पन्ने पलट ते हुए,
तुम्हारी लिखावट मिली।

आज भी रूह सिहर उठती है
तुम्हारी लिखी हुई अक्षरों को देखकर
उसे महसूस कर।

इतना महसूस तो शायद तुम्हें
तब भी नहीं किया होगा,
जब तुम थी।

आँखें ओझल हो जा रही
आसुंओं से,
लेकिन तुम नहीं।

कुछ याद नहीं मुझे
उन चंद बीते लम्हों के अलावा,
और फिर वो तुम्हारा अंतिम दर्शन
जब मैंने डाला उसपे कफ़न।

माँ, काश तुम देख पाती
मेरी ये पीड़ा,
सहला जाती मेरी पीठ
और कहती- “कि सब ठीक है बेटा”

आँखें बंद कर के जी लेता हूँ
दुबारा वो पल
जो हमने बीताये थे साथ कल।

ऐसा प्रतीत होता है की,
तुम कहीं नहीं गयी हो
यहीं हो,
हमारे पास, मेरे पास।

हाँ, बस तुम्हरा शरीर नहीं है।

तुम कल भी थी,
आज भी हो
और कल भी रहोगी।