पूरे का पूरा आकाश घुमा कर - गुलज़ार
A Chess Game with God
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख के तुमने शायद सोचा था
मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे
मैंने इक चिराग जला कर
अपना रास्ता खोल लिया।
तुमने एक समंदर हाथ में लेकर मुझ पर ढेल दिया
मैंने नूँह की कश्ती उसके ऊपर रख दी।
मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया।
मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया।
मैंने जिस्म का खोल उतार कर सौंप दिया और रूह बचा ली।
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी।
Disclaimer: This poem is written by Gulzar.
Poem Source: Google and Youtube
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