Reluctant Writer
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Writes about fictitious reality.

अतीत के गुलाब और काँटें

अतीत के गुलाब और काँटें
Image Source : dreamstime

धीरे धीरे सब धूमिल होता जाता है,
और बस बच जाते हो तुम |
अकेले तुम और तुम्हारी
मालायों जैसी पिरोयी हुई यादें |

जो गुलाब की पंखुड़ी की तरह
मुलायम सी दीखती है,
लेकिन जब पास जाओ तो
काँटों जैसा चुभन दे जाती है |

धीरे धीरे सारे रिश्ते बदल जाते हैं,
तुम ख़ुद भी बदल जाते हो,
देखने में सब कुछ ठहरा हुआ सा लगता है,
लेकिन सब कुछ बदल चुका होता है |

समय, लोग, भावनाएं, स्मृतियाँ सब कुछ

अतीत एक पुराने किताब की तरह है,
जिसे कई सालों से खोला नहीं गया,
और उसपे “समय” रूपी धूल की परत पड़ गई है|

मन के एक कोने में वो किताब पड़ी होती है,
सब कुछ अपने पन्नों में समेटे हुए |
तुम उसे खोलना चाहते हो,
लेकिन खोलने से झिझकते हो |

फिर एक दिन हिम्मत जुटा कर
तुम उस किताब को खोलते हो,
तुम्हारी सभी यादें एक आज़ाद तितलियों की तरह
तुम्हारे सामने उड़ने लगती हैं |

तुम उस अतीत को दुबारा जीना चाहते हो,
उस “तितली” को तुम पकड़ना चाहते हो,
पर तुम पकड़ नहीं पाते |

तुम्हें वो आज़ाद, उड़ती हुई तितलियाँ
अंदर से खोखला करती चली जाती हैं |

वो जो तितलियों के रूप में,
अपने पल को तुम देख रहे हो,
वो तुम्हारा अतीत है |

तुम उस अतीत को,
अपना आज़ बनाना चाहते हो |
पर वहीँ तुम अपने आज़ को भी,
अतीत में बदलते जा रहे हो |

अतीत बस एक याद बन के रह जाती है।
वो दुबारा हकीकत नहीं बन सकती,
चाहे तुम कुछ भी कर लो |

तुम्हें उस अतीत को अपनाना होगा,
उस गुलाब की पँखुड़ियों के साथ
उस चुभते हुए काँटों को भी गले लगाना होगा |

तभी तुम वर्तमान में रह पाओगे,
तभी तुम उस “समय” से धूल ग्रषित हुए
किताब का आनंद ले पाओगे।