Reluctant Writer
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Writes about fictitious reality.

ठहराव

ठहराव
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वो पानी की बहती तेज़ धारा,
के रफ़्तार से बड़ी हो रही थी।

अपनी मासुमियत को छोड़,
सादगी का श्रृंगार करते हुए
वो परिपक़्वता की ओर बढ़ रही थी।

सादगी का सरल लिबास
तन पे लपेटे हुए
वो बेदाग, बेफिक्र,
ज़िंदगी को जी रही थी।
एक अधूरे आकार से
वो पूरी चाँद हो रही थी।

तभी कुछ काले आवारा बादल
आँख मिचोली खेलते हुए आये,
और उनकी नज़र
उस चाँद पर पड़ी।

उसके मन को छोड़,
कोमल काया से आकर्षित,
वासना के तीक्ष्ण बाण से,
सफ़ेद लिबास में लिपटे हुए
चाँद को न देखकर,
बस उसके नग्न शरीर को देखा।

और जब हवस की
लालसा न पूरी हुई,
तो उस बेदाग दामन को
सदा के लिए इक दाग दे गया।

अपने सफ़ेद चरित्र के दामन में
काले दाग को अपनाते हुए,
वो अंदर से खोखली हो रही थी।
वो चाँद फिर से
अधूरी हो रही थी।

काले लिबास से अपने
तन को ढकती हुई
और सफ़ेद मन के साथ,
सबको छोड़ वो कहीं
दूर निकल पड़ी।


कुछ दूर चलने पे
एकाएक एक अजनबी मिला।

अजनबी ने दाग-रहित
लिबास में लिपटे हुए
तन के भीतर,
छिपे हुए सफ़ेद — बेदाग
मन को देखा।

एक रात खिड़की के पास वो बैठ,
दूर चाँद को निहार रही थी।
चाँद के उस दाग को देख,
अपने क्रोध की ज्वाला में जलते हुए,
मानो जैसे पतझड़ में
एक साख की तरह काँप रही थी।

वहीँ पास मूक बैठ
वो अजनबी सब देख रहा था,
उसके मन की शोर-भरी सन्नाटों
को पढ़ रहा था।

पहर, दो-पहर बीतने के बाद,
उस निस्तब्ध्द को इक निश्छल
स्पर्श का आभास हुआ।

छिछले नदी जैसा उसका तड़फड़ाता मन,
समुद्र के वेग भरी
लहरों से चोट खाता ह्रदय,
अचानक मौन सा हो गया।

अजनबी के पावन प्रेम ने
उसके ठिठुरते विश्वास को
सर्द धुप की चादर में लपेटा,
और एक सूखे वृक्ष जैसे मन में,
मानो बसंत लौट आया।

वो एक स्पर्श,
मानो जैसे गंगा का पानी
किनारे को छू गया,
वो नाहक नापाक को
पाक कर गया।

घने मेघों की बेड़ियों से बंधी,
आज असीमित आकाश में
उड़ने को आजाद हो गई,
वो चाँद आज बेदाग हो गई।

चित में उठते अनंत सवाल,
जवाब सा बन गया।
असंख्य तूफ़ान के बाद
उसके मन की लहरों में ,
एक ठहराव सा आ गया।